बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहास एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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हिन्दी काव्य का इतिहास
प्रश्न- हिन्दी साहित्य का आरम्भ आप कब से मानते हैं और क्यों?
अथवा
हिन्दी साहित्य का आरम्भ कब से माना जाना चाहिए और हिन्दी का प्रथम कवि किसे स्वीकार किया जा सकता है? अपना मत प्रकट कीजिए।
उत्तर -
हिन्दी साहित्य का आरम्भ कब से माना जाये इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि हिन्दी साहित्य के आरम्भ का प्रश्न हिन्दी भाषा के आरम्भ से जुड़ा है। कोई भी जनभाषा अपनी यात्रा पर निकलकर सदा एक रूप नहीं होता स्थान और कालभेद के कारण उसमें स्वतः परिवर्तन होता जाता है। हिन्दी भाषा में भी स्थान एवं कालभेद के कारण अनेक रूप मिलते हैं। ये भेद मगही, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, कन्नौजी, बुन्देलखण्डी, बघेलखण्डी, ब्रज, खड़ी बोली, वागरू, मेवाती, हाड़ौती, मादवाड़ी, मेवाड़ी, ढुढारी, मालवी, भीली, खानदेशी, पहाड़ी आदि में देखे जा सकते हैं। ये भेद केवल स्थान भेद के कारण ही नहीं हैं, कालभेद के कारण भी है। कुछ शताब्दियों पूर्व इन भाषाओं का जो रूप-रंग है, वैसा आज उपलब्ध नहीं है, किन्तु तात्त्विक समानता तो है ही। इन सब रूपों में जो साहित्य रचा गया है, वह हिन्दी साहित्य है। परिणामतः भाषा के रूप भेद को न स्मरण करते हुए तात्त्विक परिवर्तन दृष्टि में रखकर एक भाषा का अन्त और दूसरी का आरम्भ मान लेना चाहिए। इसीलिए अपभ्रंश को अलग भाषा मान लेना चाहिए और उसके आधार पर भिन्न रूप में विकसित भाषा को अलग नाम दे देना चाहिए। यह भी सच है कि अपभ्रंश 15वीं शताब्दी से बोलचाल की भाषा से अलग होकर उसके समानान्तर साहित्य रचना का माध्यम बनी। इसी भाषा को कुछ ने उत्तर अपभ्रंश नाम दिया अथवा पुरानी हिन्दी कहा या कुछ विद्वानों ने 'अवहट्ट' नाम दिया है। लेकिन ये नाम भ्रम पैदा करते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इस समय की भाषा को पुरानी हिन्दी नाम दिया। उन्होंने कहा उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिन्दी है। यहाँ उत्तर शब्द काल का बोधक न होकर साहित्यिक अपभ्रंश से इतर बोलचाल की उस भाषा का बोधक है, जो साहित्यिक अपभ्रंश के रूप की स्वीकृति के पश्चात् उसके बाद के रूप में स्थापित होती जा रही है।
आचार्य शुक्ल ने चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के उत्तर अपभ्रंश को स्वीकार कर लिया। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास में उत्तर अपभ्रंश की रचनाओं को स्थान दे दिया और यह भी कहा कि . उनके आधार पर उस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं की जा सकती है। राहुल सांकृत्यायन ने उत्तर अपभ्रंश की रचनाओं को हिन्दी की रचनाएं माना। अपनी पुस्तक 'हिन्दी के प्राचीन कवि और उनकी कविताएं' लेख में उन्होंने हिन्दी का आदिरूप विक्रम शिला और नालन्दा विश्वविद्यालय के सिद्धों द्वारा बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व के प्रचार की भाषा में सिद्ध किया है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने भी गुलेरी व राहुल सांकृत्यायन के मतों को स्वीकार किया और उत्तर अपभ्रंश के. कवियों को हिन्दी साहित्य में स्थान दिया।
आचार्य शुक्ल के समान डॉ. श्यामसुन्दरदास व डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी अपभ्रंश साहित्य की चर्चा आदिकाल से ही की है। द्विवेदी ने अपभ्रंश और हिन्दी के सम्बन्ध में यों स्वीकार किया। इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल जिसे हिन्दी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है। इसी अपभ्रंश के बढ़ाव को ही कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी। बीसवीं शताब्दी तक निश्चित रूप से अपभ्रंश ही पुरानी हिन्दी के रूप में चलती रही थी, यद्यपि उसमें नये तत्सम शब्दों का आगमन शुरू हो गया था। वस्तुतः आचार्य द्विवेदी उत्तर अपभ्रंश को हिन्दी से अलग रखना चाहते हैं, फिर भी उन्होंने उत्तरकालीन साहित्य को आदिकाल की सामग्री माना और विवेचन किया। यानी आचार्य द्विवेदी उत्तर अपभ्रंश को हिन्दी का आरम्भिक रूप मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि अपभ्रंश में तद्भव रूप के प्रयोग किये जाते हैं, जब वह तत्सम रूपों में विकसित हुई तो हिन्दी कहलायी।
उपर्लिखित विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य के आदिकाल की सामग्री में उत्तर अपभ्रंश की सभी रचनाओं का समावेश हो जाता है। इसे हिन्दी साहित्य से निकालना उचित नहीं। अतः सिद्धों की रचनाओं से हिन्दी साहित्य का आरम्भ माना जाना चाहिए। उनके साहित्य की भाषा अपभ्रंश के उत्तर भाषा रूप की सूचना देती है और यह भी कह देना जरूरी है कि सिद्धों की रचनाएँ साहित्यिक अपभ्रंश से खुला विरोध करती नजर आती है। सिद्धों की वस्तु दृष्टि जिस धार्मिक चेतना से जुड़ी है, उसका सीधा सम्बन्ध नाथ साहित्य से भी है और नाथ साहित्य से होती हुई यह दृष्टि भक्तिकाल से जुड़ जाती है।
सिद्ध साहित्य में हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ - सार यह है कि हिन्दी भाषा के विकास की आरम्भिक स्थिति और उत्तरवर्ती धार्मिक चेतना को मूल रूप में ध्यान में रखकर सिद्ध साहित्य से हिन्दी का आरम्भ माना जाना चाहिए। पर साहित्यिक अपभ्रंश के ग्रन्थों से हमें उसे सावधानीपूर्वक अलग करना पड़ेगा। इसलिए कई विद्वानों ने दोनों को ही एक मानकर हिन्दी साहित्य में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। जिन सिद्धों ने अपभ्रंश व आरम्भिक हिन्दी में रचना की है। ऐसे कवियों की रचनाओं को दो भागों में विभाजित किया जाना चाहिए और उसी आधार पर उसकी गणना की जानी चाहिए। विद्यापति को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। एक ही कवि को अपभ्रंश का कवि भी माना जा सकता है और कुछ रचनाओं में आरम्भिक हिन्दी का प्रयोग देखकर हिन्दी का आरम्भिक कवि भी।
हिन्दी का पहला कवि - हिन्दी का पहला कवि किसे माना जाए? इस मामले में शिवसिंह सेंगर का कहना है कि सातवीं शताब्दी में उत्पन्न पुण्प या पुष्प अथवा 'पुंड हिन्दी के पहले कवि थे। इस कवि का उल्लेख तो है पर उनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। राहुल सांकृत्यायन ने सातवीं शताब्दी ईस्वी के कवि सरहपाद को हिन्दी का पहला कवि माना है। सरहपाद 84 सिद्धों में एक थे। उनकी कविता में साहित्यिक अपभ्रंश का रूप छुटा हुआ मिलता है और बोलचाल की भाषा, जिसे प्रारम्भिक हिन्दी कहा जाता है, प्रयुक्त है। वर्ण्य विषय व चेतना की दृष्टि से उनका काव्य हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल का बीजांकुर है। उल्लेखनीय है कि 84 सिद्धों की काव्य चेतना के अनेक तत्व नाथ सम्प्रदाय की काव्य चेतना में विलीन हुए, एक नयी प्रेरणा बनें और फिर उन्होंने भक्तिकाल की आधार भूमि तैयार की। सिद्ध साहित्य से ही नाथ साहित्य का विकास हुआ है और नाथ साहित्य की प्रेरणा से ही भक्तिकालीन संत साहित्य का प्रादुर्भाव। कबीर संत साहित्य के पहले कवि हैं। सरहपाद काव्य परम्परा में विकसित नाथ पंथ का हठयोग कबीर के काव्य में पल्लवित हुआ है। अपभ्रं साहित्य पर सरहपाद का कोई खास प्रभाव नहीं जितना नाथ साहित्य और संत साहित्य पर है सरहपाद की शैली दोहा और पद उनके बाद के सभी कवियों ने अपनाई है। अतः सरहपाद हिन्दी के प्रथम कवि है।
कुछ ऐसे विद्वान भी है जो सरहपाद को हिन्दी का पहला कवि नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि सरहपाद की रचनाएँ अपभ्रंश साहित्य का अंग है। इन विद्वानों के पास दूसरा तर्क यह है कि सरहपाद के समय से ग्यारहवीं शताब्दी तक हिन्दी की रचना परम्परा नहीं मिलती। इन दोनों क में कोई दम नहीं। डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त ने हिन्दी साहित्य के वैज्ञानिक इतिहास में भरतेश्वर- बाहुबलीरास के रचयिता शालिभद्र सूरि को हिन्दी का पहला कवि माना है। पर इसे तर्कसंगत नहीं माना जा सकता। सरहपाद की भाषा तो हिन्दी का प्रारम्भिक रूप है, और शालिभद्र सूरि की भाषा में यह रूप नहीं मिलता। शालिभद्र सूरी की हिन्दी को देन नगण्य है जबकि सरहपाद की काव्य चेतना से तो भक्तिकालीन संत कवि तक प्रभावित है। अतः सरहपाद को ही हिन्दी का पहला कवि मानना चाहिए।
हिन्दी की प्रथम रचना - जहां तक हिन्दी की प्रथम रचना का प्रश्न है तो सरहपाद की रचनाएँ तो मुक्तक रूप में मिलती हैं। उनकी किसी भी एक पुस्तक को हिन्दी की प्रथम रचना नहीं माना जा सकता। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने हिन्दी काव्यधारा में सरहपाद की कुछ रचनाओं का संग्रह किया है जिनसे एक उदाहरण दिया जा सकता है -
तहि वट चित विसाम करु, सरहे कहिअ उवेश॥
देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ॥ .
यों तो इसमें अपभ्रंश भाषा की व्याकरण की प्रवृत्ति देखी जा सकती है, पर हिन्दी के रूप की झलक भी मिलती है। डॉ. द्विवेदी ने जिस तत्समता की प्रवृत्ति को हिन्दी भाषा का मूल रहस्य माना है, वे 'पवन शशि' जैसे शब्द भी देखे जा सकते हैं। अन्य सिद्ध कवियों ने सरहपाद की भाषा शैली का अनुकरण किया है। राहुल जी ने सरहपाद का समय 796 ई. माना है। यों डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य 633 ई. मानते हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा भी कहते हैं कि सातवीं शताब्दी से ही सिद्धों की रचनाओं को अपनी भाषा के प्रारम्भिक रूप में पाते हैं। अतः यदि एक ग्रन्थ के रूप में हिन्दी की प्रथम रचना का निर्धारण करना है, तो सरहपाद आदि सिद्धों के बाद जैन आचार्य देवसेन कृत 'श्रावकाचार का नाम लिया जा सकता है। चूंकि इसमें सरहपाद को दोहा शैली का विकसित रूप मिलता है।
सारांश यह है कि हिन्दी साहित्य का आरम्भ सिद्ध साहित्य से माना जा सकता है। हिन्दी का पहला कवि सरहपाद है और यदि हिन्दी के एक ग्रन्थ के रूप में हिन्दी की प्रथम रचना स्वीकार करनी है तो वह है आचार्य देवसेन कृत श्रावकाचार।
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- प्रश्न- इतिहास क्या है? इतिहास की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य का आरम्भ आप कब से मानते हैं और क्यों?
- प्रश्न- इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास का संक्षेप में विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- साहित्य के इतिहास के महत्व की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- साहित्य के इतिहास के महत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का संक्षेप में परिचय देते हुए आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन में योगदान की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के आधार पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- इतिहास लेखन की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की समस्या का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की पद्धतियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
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